आज हम बात करेंगे बाड़मेर विधानसभा की। यह मरुक्षेत्र कांग्रेस का गढ़ रहा है। यहां अब तक 14 चुनाव हुए। इनमें सबसे ज्यादा 7 बार कांग्रेस ने बाजी मारी है। भाजपा को अब तक केवल एक बार ही यहां से विजय मिल पाई है। यहां सबसे पहले 1952 में चुनाव हुए और तनसिंह राम राज्य परिषद से चुनाव जीते। उन्होंने कांग्रेस के वृद्धिचंद जैन को पटखनी दी। 1957 में फिर तन सिंह ही विजेता रहे और उन्होंने रुक्मणी देवी को हराया। इसके बाद निर्दलीय प्रत्याशी उम्मेद सिंह ने कांग्रेस के वृद्धिचंद जैन को हराया। इसके तीन कार्यकाल तक कांग्रेस के वृद्धिचंद जैन ही यहां जीतते रहे।
1980 में कांग्रेस से देवदत्त तिवारी विजेता रहे। 1985 में लोकदल के गंगाराम चौधरी ने यहां से बाजी मारी। बाड़मेर विधानसभा सीट के 1952 से 2013 तक के चुनाव आंकड़ों पर नजर डालें तो सर्वाधिक मतों से जीत का रिकॉर्ड वृद्धिचंद जैन के नाम दर्ज है। जैन ने 1998 में 33,611 वोटों से भाजपा के तगाराम चौधरी को हराया था। सबसे कम 1318 वोटों से निर्दलीय उम्मेद सिंह ने 1962 में कांग्रेस के वृद्धिचंद जैन को हराया था।
इस सीट पर सबसे ज्यादा चार बार वृद्धिचंद जैन विधायक रहे। तीन बार गंगाराम चौधरी विधायक बने। 2008 व 2013 के विधानसभा चुनावों में यहां से मेवाराम ने बाजी मारी। बाड़मेर विधानसभा सीट पर बीते 66 वर्षों में भाजपा सिर्फ एक बार ही चुनाव जीती। वर्ष 1993 में निर्दलीय गंगाराम चौधरी विधायक बने और बाद में भाजपा में शामिल हुए। 1998 में भाजपा के तगाराम चुनाव हार गए। 2003 में तगाराम चौधरी ने 30,523 वोटों से जीत दर्ज की। देश की आजादी के बाद कांग्रेस ने तीन बार अपने चुनाव चिह्नों बदलाव किया है। कांग्रेस का पहले चुनाव चिह्न दो बैलों की जोड़ी था।
इसके बाद वर्ष 1971 में इंदिरा गांधी के समय यह चुनाव चिह्न बदलकर गाय-बछड़ा किया गया और वर्ष 1977 कांग्रेस के चुनाव चिह्न के रूप में हाथ आ गया। इसके अलावा जनसंघ का चुनाव चिह्न दीपक था। इसके बाद भारतीय जनता पार्टी के निर्माण के बाद कमल का फूल निशान बन गया। भाजपा ने बाड़मेर में प्रियंका चौधरी को टिकट नहीं दिया और इसकी जगह पर दीपक कड़वासरा को प्रत्याशी घोषित किया है। 34 साल के दीपक के दादा तगाराम चौधरी बाड़मेर से 2003 में भाजपा से विधायक रहे है। दीपक भाजपा संगठन में सक्रिय रहे है और वे दावेदारों में थे। बाड़मेर में टिकट को लेकर प्रियंका चौधरी की दावेदारी भी थी और उन्होंने 4 नवंबर को नामांकन भी भर दिया था। अब परिणाम तक कयासों के दौर चल रहे हैं, लेकिन कमल के लिए यहां राह मुश्किल ही है। कांग्रेस के मेवाराम कद्दावर नेता है और उन्हें पटखनी देना आसान नहीं हो सकता।