Editorial By राजेश कसेरा
जयपुर। चुनाव की आंच से भले पांच राज्यों में सत्ता की सिकाई हो रही है, पर इसकी गर्मी का असर पूरे देश में महसूस हो रहा है। तभी तो राजस्थान चुनाव में तो भाजपा और कांग्रेस से कहीं ज्यादा सीधा मुकाबला देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र माेदी और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच दिख रहा है। गहलोत जहां सत्ता वापसी के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं, वहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में मिली हार का हिसाब राजस्थान से चुकता करना चाहते हैं। दोनों राज्यों में पीएम मोदी के ड्राइविंग सीट पर बैठने के बावजूद भाजपा जीत की मंजिल तक नहीं पहुंच पाई और सत्ता हाथ से गंवानी पड़ी। यही कारण है कि मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम से कहीं ज्यादा पीएम मोदी का फोकस राजस्थान के चुनाव पर है। वे अच्छी तरह से जानते हैं कि गहलोत को उनके गढ़ में मात देकर वे कांग्रेस और इंडिया गठबंधन को बड़ा नुकसान पहुंचा सकते हैं। देश की राजनीित में सियासत के सटीक और अमोघ दांव खेलने वाले चुनिंदा राजनीतिज्ञों में गहलोत की गिनती होती है। ऐसे में यदि पीएम मोदी चुनावी मोर्चे पर उनको शिकस्त देने में कामयाब रहे तो वर्ष 2024 की केन्द्र में मिलने वाली तीसरे कार्यकाल की चुनाैतियां आसान हो जाएंगी। मौजूदा सियासत के समीकरणों को देखें तो गहलोत अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में फंसे हैं और उनके अपने उनको संघर्ष करता हुआ देख रहे हैं।
गहलोत की ताकत : दूरदर्शी और सियासत के समीकरण बिठाने में माहिर
राजनीति में जादूगर की उपमा पाने वाले गहलोत ने अपनी राजनीतिक बुद्धिमता, दूरदर्शी सोच और कड़े फैसले के बूते नाम और मुकाम पाया। पांच दशक से राजनीति के मैदान में डटे गहलोत चार बार सांसद, तीन बार केन्द्रीय मंत्री, तीन बार मुख्यमंत्री और इतनी ही बार प्रदेशाध्यक्ष रहे। कांग्रेस के शीर्ष नेताओं की सूची से वे कभी बाहर नहीं हुए। गांधी परिवार की तीन पीढ़ियों के साथ काम किया। वर्ष 2014 के बाद देश में मोदी और शाह के नेतृत्व में फैली भाजपा की लहर को बांधने का काम गहलोत ने दमदार तरीके से किया। 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में बतौर प्रभारी गहलोत ने मोदी और शाह के सशक्त गढ़ की नींव हिलाकर रख दी। यदि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व गहलोत को मजबूती के साथ काम करने के लिए फ्री हैण्ड देता तो आज देश में पार्टी का अस्तित्व कमजोर नहीं पड़ता।
गहलोत की कमजोरी : अपनों से मिले संघर्षों से पांच साल लगातार जूझते रहे
तीसरे कार्यकाल के पहले चार साल गहलोत अंदरूनी सियासी संग्राम से जूझते रहे। इस दौरान कोरोना ने भी कामकाज की रफ्तार पर ब्रेक लगाए रखा। ऐसे में चुनावी साल में घोषणाओं और उनके क्रियान्वयन में गहलोत ने पूरा दम-खम झोंक दिया। लेकिन पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने मुश्किल समय में उनका साथ नहीं दिया। इसका परिणाम यह रहा कि वे सरकार बचाने के संघर्ष में लगे रहे। प्रदेश महंगाई, महिला अपराध, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों से जूझता रहा। मंत्री और विधायक विवादों में घिरे रहे। विपक्ष ने भी इन्हीं मुद्दों पर सरकार को घेरा। पीएम मोदी ने भी अपनी 10 यात्राओं के दौरान चुन-चुन कर गहलोत पर निशाने साधे और जयपुर रैली में तो उनकी सरकार को शून्य नंबर तक दे दिए।
पीएम मोदी की रणनीति : राजस्थान को जीतकर गहलोत को कमजोर करना
राजस्थान में भाजपा के चुनाव अभियान की कमान हाथ में लेकर प्रधानमंत्री मोदी 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव की नींव को मजबूत करना चाहते हैं। भाजपा के सभी दिग्गज रणनीतिकार मोदी, अमित शाह, जेपी नड्डा ये अच्छी तरह से जानते हैं कि राजस्थान में गहलोत को मात देकर वे सिर्फ यहां सत्ता हासिल नहीं करेंगे, बल्कि कांग्रेस के सबसे मजबूत पिलर को कमजोर कर देंगे। कांग्रेस के मौजूदा शीर्ष नेतृत्व की बात करें तो गहलोत के कैडर का कोई बड़ा नेता वहां नहीं है। यही कारण है कि पार्टी उनके कद के अनुरूप उनको राष्ट्रीय अध्यक्ष का जिम्मा देना चाहती थी। इसके बाद इंडिया गठबंधन के संयोजक के रूप में भी कांग्रेस ने उनको दमदार विकल्प के रूप में माना। लेकिन गहलोत ने प्रदेश छोड़कर जाने से इनकार किया तो भाजपा को अवसर मिल गया कि गहलोत को घेरने का इससे अच्छा मौका उनको नहीं मिलेगा। यही कारण रहा कि भाजपा ने यहां मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में किसी को आगे नहीं किया और पार्टी के चुनाव चिन्ह कमल को सामने रख दिया। इस चिन्ह की परछाई खुद मोदी बन गए और वे पूरी रणनीति बनाकर गहलोत को मात देने में जुटे हैं। वे राजस्थान के दौरों के दौरान केवल गहलोत पर कड़े वार करते हैं और उनको बयानबाजी में उलझाने का क्रम करते हैं। लेकिन गहलोत भी सियासत का जवाब उसी तेवरों के साथ देते हैं और अपने मिशन में लगे रहते हैं।