– राजेश कसेरा
देश को श्रेष्ठ इंजीनियर और डॉक्टर्स देने वाली कोचिंग सिटी को बीते एक वर्ष में क्या हो गया, इस सवाल का जवाब इस समय हर कोई तलाश रहा है। सिर्फ आठ महीनों में इस शहर के अंदर 28 घरों के चिराग असमय बुझ गए। कितनी उम्मीद और भरोसे के साथ माता-पिता ने अपने इन बच्चों को यहां भेजा था। यही सोचकर कि वे पढ़-लिखकर उनका नाम रोशन करेंगे और आने वाले कल में बेहतर जिन्दगी जी सकेंगे। पर, ऐसा हो नहीं सका और इन बच्चों की जिन्दगी मुट्ठी में बंद रेत की मानिंद फिसल गई। किसे दोष दें?
सबके अपने-अपने तर्क हैं, अभिभावक उस घड़ी को कोस रहे होंगे, जब उन्होंने अपने बच्चों को खुद से दूर भेजा। कोचिंग संस्थान ये सोच रहे होंगे, हमने तो अपना बेस्ट देने का प्रयास किया, पर बच्चा परफॉर्म नहीं कर पाया। आम लोग माता-पिता और कोचिंग संस्थान पर नाकामी का ठीकरा फोड़ने में जुट गए। किसी ने परिजनों को खुदगर्ज बना दिया, तो कइयों ने कोचिंग संस्थानों को पैसा लूटने का डाकू, जिसे सिवाय फीस के कुछ नहीं दिख रहा। जो बुद्धिजीवी हैं, वे अपना ताना-बाना बुन रहे हैं तो जो नामसझ हैं, वे अपनी थ्योरी दे रहे हैं। वहीं, सब पर लगाम कसने वाला प्रशासन सब कुछ लुटाकर होश में आने के बहाने ढूंढ रहा है। पर, इन सबके बीच किसी के पास उस गहरी जड़ों को तलाशने की चिंता नहीं है, जो बढ़ते-बढ़ते विषबेल बन चुकी है। कुछ किया तो बस इसको पोषित करने का और इसे दाना-पानी देने का।
इन सबका हिसाब-किताब तो वही पिता सबसे अच्छा लगा सकता है, जिसने अपने जवान बच्चे की अर्थी को कांधा दिया है। बाकियों ने तो अफसोस जताकर फिर से उसी कमरे को खोल दिया, जहां कुछ दिन पहले तक एक बच्चे की सांसें थमी थीं। कोटा पर लगा ये दाग कैसे धुलेगा, इसकी चिंता के लिए कम से कम शहर और प्रदेश को एकजुट होना ही होगा। जिस शहर ने लोगों को संघर्ष करने की परिभाषा सिखाई है, उस शहर की पहचान सुसाइड सिटी के रूप में बन जाए, इससे बड़ी शर्मनाक बात और क्या होगी?
कोटा ने कोचिंग सिटी का तमगा ऐसे ही हासिल नहीं किया। न जाने कितने शिक्षकों और विद्यार्थियों का परिश्रम इसके पीछे है। करीब ढाई दशक का संकल्प, समर्पण, सब्र और विश्वास इसके पीछे है। इसी पूंजी को फिर से जोड़ने की जरूरत है। इस शहर में आने वाला एक भी बच्चा असमय काल का ग्रास नहीं बने, इस दृढ़ सोच को स्थापित करना ही होगा। उसके लिए जो कुछ हो सके, करना होगा।
एक-एक बच्चे के मन को टटोलना होगा। उसे भरोसा दिलाना होगा कि जीवन से बड़ा कुछ नहीं। माता-पिता और परिजनों से बड़े हितैषी उनके लिए संसार में कोई नहीं। शिक्षा का रास्ता केवल डॉक्टर या इंजीनियर बनने तक पूरा नहीं होता, सैकड़ों नौकरियों और हजारों अवसर उनका इंतजार कर रहे हैं।
देश को इन बच्चों की जरूरत है। इनके दम पर अभी चांद छुआ है, फिर सूरज को फतह कर लेंगे। ये देश का कल हैं और इनके बूते ही विकसित राष्ट्र का सपना साकार होगा। इन लाखों बच्चों से केवल इनके परिजनों या अपनों की आस नहीं बंधी है, बल्कि समाज, प्रदेश और देश की भी जुड़ी हैं। इन्हें खुलकर कह दें, सारे संकल्प इनके साथ ही पूरे होंगे। बस डटे रहें और खड़े रहें।