पुष्पा-2 ने इन दिनों भारतीय सिनेमा के साथ दुनिया भर के फिल्म प्रेमियों के चेहरे पर बड़ी मुस्कान फैला दी है। इन दिनों अकेले हीरो के दम पर फिल्म को बनाने और उससे रिकॉर्ड तोड़ कमाई करने की चलन में आई संस्कृति पुष्पा-2 में भी देखने को मिली। नायक अल्लू अर्जुन पर केन्द्रित इस फिल्म में जबरदस्त एक्शन, कॉमेडी, ड्रामा के साथ पुष्पा श्रृंखला की तीसरी किस्त बनने का तड़का भी लगाया गया है। देखा जाए तो भारतीय सिनेमा में बीते कुछ वर्षों में ऐसी फिल्मों का चलन तेजी से बढ़ गया है, जिसमें अकेला हीरो कुछ भी कर सकता है। वह सैकड़ों-हजारों की फौज से अकेला लड़ सकता है तो चुटकी बजाते ही सब कुछ संभव कर सकता है। यहां तक कि कितना भी खतरनाक और ताकतवर खलनायक आ जाए उसका कोई बाल बांका तक नहीं कर सकता है।
इन दिनों फिल्मों के नायक को लार्जर देन लाइफ यानी जीवन से बड़ा बताया जा रहा है। बीते सात-आठ सालों की बात करें तो बाहुबली, आरआरआर, सालार, केजीएफ, जवान, पठान, कल्कि 2898 एडी, एनिमल जैसी फिल्मों ने इसे साबित भी किया है कि अकेला हीरो सब पर भारी पड़ता है। उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सामने दुश्मन कितना सशक्त है। इतना ही नहीं, फिल्म बनाने वाले निर्माता और निर्देशक को भी इन अनुभवों से साफ संकेत मिल रहे हैं कि ऐसी कहानी पर काम करें जिसमें हीरो के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। वह खून की नदियां बहा सकता है तो कानून-पुलिस को अपनी जेब में रख कर खुलेआम घूम सकता है। कोई अपराध उसके लिए छोटा या बड़ा नहीं और उसे लाइसेंस मिला हुआ है कि वह कहानी के अनुसार चाहे जो करे, अंत में सीटी और तालियां ही तो मिलनी हैं।
पुष्पा-2 में भी यही सब देखने को मिला. इस फिल्म में नायक के आगे पुलिस, राजनेता, सत्ता, सरकार और पॉवर सबको नतमस्तक करता हुआ दिखाया गया है. वह अकेले ही सारे ऐसे काम कर डालता है जिसे सामान्य व्यक्ति अपने जीवन में करने की सोच भी ले तो दिन में तारे दिखने लगेंगे. फिर भी भारतीय सिनेमा में ऐसी कहानियों पर करोड़ों रुपए खर्च कर फिल्में बनाई जाती हैं और उनसे अरबों रुपए कमाए भी जाते हैं। कहते हैं भारत में फिल्में समाज का आईना होती हैं। यहां फिल्मों को मनोरंजन का सबसे बड़ा माध्यम माना जाता है। कई फिल्मों से शिक्षा मिलती है तो कुछ से भावनात्मक सुखानुभूति। पर, मौजूदा दौर में एक्शन फिल्मों की कहानियां बड़ी संख्या में रील लाइफ से दूर रियल हालात में अपराध को बढ़ावा देने के लिए मजबूर भी कर रही हैं। हमारे देश के युवा खुद में उन नायकों को महसूस करने लगते हैं, जिन्हें वे परदे पर देखते हैं। परदे पर नायक शराब, सिगरेट, ड्रग्स के सेवन के साथ सरेआम अय्याशी करता है. उसे देखकर समाज के युवा उनकी तरह बनने की सोच बना लेते है. इसके दुष्परिणाम अक्सर सामने भी आ रहे हैं, जब अपराध सामने आने के बाद ये पता चलता है कि फलां फिल्म को देखकर ऐसा किया और अमुक हीरो से प्रेरित होकर सामने वाले को नुकसान पहुंचा दिया। ऐसा कतई नहीं है कि फिल्मों को बनाने के पीछे समाज को बुराई की ओर धकेलने का मंतव्य होता है, लेकिन जो सच्चाई असल जीवन में सामने आती है, उसके अनुभव तो फिल्मों में लिए ही जा सकते हैं।
क्या सिर्फ मनोरंजन और ताबड़तोड़ कमाई फिल्मों को बनाने का मकसद रह गया है? ज्यादातर कहानियों में बेहिसाब दिखाई जा रही हिंसा से कभी समाज का भला नहीं हो सकता? जिन सुपरस्टार्स को देखकर युवा उन्हें रोल मॉडल मानने लगते हैं उन्हें कम से कम ये सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी भी निभानी चाहिए कि वे अपने प्रशंसकों को रील और रियल के बीच का अंतर साफ बताएं। केवल काल्पनिक कहानी या सत्य घटनाओं से प्रेरित नहीं की, वैधानिक चेतावनी देकर अपनी जिम्मेदारी से बचा नहीं जा सकता। आखिर इनको देखकर ही युवा और फैंस जीवन जीने का आधार तय करते हैं। फिर एक कदम वे भी तो बढ़ाएं।