योगेन्द्र शर्मा . दीपावली की दस्तक ने शहर से लेकर गांवों तक के माहौल को नएपन से भर दिया है। धन त्रयोदशी के साथ ही आज से दीपोत्सव का आगाज हो चुका है। सच में त्योहार जीवन में प्रेम, सहयोग और उल्लास की त्रिवेणी बहाते हैं। सबसे पहले प्रेम को समझना होगा। प्रेम में स्वार्थ नहीं होता। प्रेम को समझने के लिए किसी भाषा की आवश्यकता नहीं होती। यह तो मौन में भी मुखर होता है। आज हम यदि प्रेम को अपने इर्द-गिर्द तलाशें तो शायद यह नहीं मिलेगा। यह कोई वस्तु पदार्थ तो है नहीं जो दाम दिए और खरीद लाएं। कहा भी गया है प्रेम न हाट बिकाए। अगर प्रेम की उपमा दी जाए तो सबकी जुबान पर नाम आएगा। कृष्ण-सुदामा का प्रेम, गोपियों और कृष्ण का प्रेम। सुदामा जब कृष्ण से मिलने आए थे तो श्रीकृष्ण ने अपने नयनों से प्रवाहित अश्रुओं से सुदामा के चरण धोए थे। इस दृश्य को जरा आत्मसात करके देखिए। आपको भी उस प्रेम की अनुभूति होने लगेगी। अभी हम जिसे प्रेम समझ रहे हैं, दरअसल वह प्रेम है ही नहीं। हम वो मछली हैं जो जल में रहकर भी प्यासी है। प्रेम वैसा हो जैसा मछली का जल से होता है। बिना जल के प्राण छोड़ देती है।
प्रेम का समंदर हमारे अंदर ही है। इसे टटोलने की जरूरत है। अभी हमारा ध्यान एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा में लगा है कि कैसे दूसरे को नीचा दिखाया जाए। इस प्रतिस्पर्धा में व्यक्ति यह भी भूल जाता है कि सामने वाला मेरा भाई है या दोस्त। भाई-भाई का दुश्मन बना है और दोस्त-दोस्त का। पिता-पुत्र में भी प्रेम देखने को नहीं मिलता। पुत्रों की नजर भी पिता की संपत्ति पर रहती है। श्रव णकुमार तो कहीं नजर ही नहीं आते। इस दौर में यदि श्रवण कुमार कहीं नजर आ जाएं, तो भगवान के दर्शन की जरूरत ही नहीं रह जाती है।
अब तो सहयोग और उल्लास भी कम हो चला है। एक समय था जब संयुक्त परिवार होते थे। 25-30 लोग घर में एक साथ रहा करते थे। परिवार का मुखिया पिता होता था। पिता के बाद चाचा या परिवार के बड़ों के कंधों पर सब जिम्मेदारी आ जाती थी। फिर उनकी बात सब परिवारजन मानते थे। घर में कोई भी ब्याह-शादी, वार-त्योहार साथ मनाए जाते थे। आज एकल परिवार हो गए हैं। एकल में भी एक-एक बंट गए हैं। बेटा-बेटी अलग कमरे में अपने मोबाइल फोन पर व्यस्त हैं, पिता अलग और माता अलग फोन पर चैटिंग में लगे हैं। किसी के पास किसी के लिए वक्त नहीं है। सच्चे प्रेम और सहयोग की बात तो दूर, दिखावे का भी नहीं रह गया। माताओं का अपनी विवाहित बेटियों से ऐसा प्रेम है कि वे कई घंटों तक फोन पर बातों में लगी रहती हैं। यहां तक तो सही है, लेकिन जब दोनों की बातचीत के दौरान जब सास-ससुर, ननद आदि की बुराइयों का दौर शुरू होता है तो फिर कब सुबह से शाम हो जाए, पता नहीं चलता। बुराई किए जाने की बात कभी दामाद को पता चल जाती है तो कई बार मारपीट, फिर नौबत तलाक तक पहुंच जाती है।
बात चल रही थी प्रेम और सहयोग की। महाभारत ग्रंथ में एक प्रसंग है।इसमें पांचों पांडवों के आपस में गहरे प्रेम के बारे में बताया गया है। पांडव, अपनी माता कुंती से, पत्नी द्रौपदी से और मित्र और भाई कृष्ण से अगाध प्रेम करते थे। उनके सच्चे प्रेम के कारण ही युद्ध में उनकी जीत हुई। वहीं दुर्योधन के खेमे में भीष्म पितामह की दुर्योधन और कर्ण से नाराजगी, दुर्योधन के भाइयों और पिता धृतराष्ट्र की पांडवों से नाराजगी ही उन्हें ले डूबी। इसलिए प्रेम बहुत ही जरूरी है। सभी प्राणियों से प्रेम किया जाना चाहिए। प्रेम के आते ही सहयोग की भावना अपने आप प्रस्फुटित हो जाती है और जहां ये दोनों है, वहीं तो सच्चा उल्लास है। उल्लास समूह से बनता है। समूह सहयोग से। इसलिए आज पंच पर्व के आगाज पर हमें फिर से हृदय में प्रेम, सहयोग और उल्लास की त्रिवेणी बहाने का संकल्प करना चाहिए।