समीक्षक- माणक तुलसीराम गौड़
लेखक— प्रबोध कुमार गोविल
ढाई आखर की कहानी है उपन्यास ‘हडसन तट का जोड़ा’ जिसे लिखा है ख्यातनाम साहित्यकार प्रबोध कुमार गोविल ने। जिन्होंने अब तक ‘देहाश्रम का मनजोगी’, ‘बेस्वाद मांस का टुकड़ा’, ‘रेत होते रिश्ते’, ‘वंश’, ‘आखेट महल’, जल तू जलाल तू’, ‘अकाब’, रायसाहब की चौथी बेटी’, ‘टापुओं पर पिकनिक’, ‘ज़बाने यार मनतुर्की’, ‘हसद’ और झंझावात में चिड़िया’ लिखकर न केवल हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है बल्कि लघुकथा, कहानी और उपन्यास जैसी विधाओं को एक नई ऊंचाई भी प्रदान की है।
समीक्षित उपन्यास ‘हडसन तट का जोड़ा’ इसी फंतासी के सहारे प्रेम भावनाओं से ओतप्रोत उपन्यास है, जिसे पाने के लिए उपन्यास के नायक ‘राॅकी’ और नायिका ‘ऐश’ विश्व भ्रमण का बीड़ा उठाते हैं। जिसमें ऐश को अनेक आपदाओं-विपदाओं का सामना करना पड़ता है। ऐश में जोश है, परंतु होश के बिना जोश हित की जगह अहित कर बैठता है। इसलिए अपने समूह के सबसे अनुभवी और बुजुर्ग राही या यों कह दें सहयात्री एक हंस जिसे बूढ़ा चाचा कहा गया है, ऐश पर कुदृष्टि डालता है। तब प्रश्न खड़ा होता है कि हम विश्वास करें भी तो आखिर किस पर ?
उपन्यासकार ने ‘राॅकी और ऐश’ जैसे हंसों के एक खूबसूरत जोड़े के माध्यम से इंसानों को बहुत ही गहरी, उपयोगी और महत्वपूर्ण शिक्षा दी हैं। जो स्थान-स्थान पर पर हमारे लिए उद्धरण का काम करती हैं। जैसे- ‘दुनिया की हर चीज आनी-जानी है, रहनी तो केवल बातें ही हैं न यहाँ ?’ अपने भाई की जीवन रक्षा के लिए ये शब्द ‘मैं उससे बिनती करती, उससे कहती कि मेरे भाई को छोड़ दे चाहे उसके बदले में मुझे ले जा।’ इसमें उसकी अपने भाई के प्रति प्रेम, त्याग, समर्पण और बलिदान की भावना समाई हुई है।
जब राॅकी और डाॅगी का निम्न लिखित वार्तालाप सुनेंगे तो हमारी आँखें खुल जाएँगी। अब नस्ल, जाति, धर्म, रंग, संप्रदाय आदि की बातें करना घटिया सोच है। अब तो प्यार, दोस्ती, समझ, दुनिया को आगे बढ़ाने की इच्छा ही सब कुछ है। देखते नहीं, दुनिया में तमाम झगड़े-टंटे, विवाद, खून-खराबा सब इसीलिए होता है कि हम हर बात में ‘अपना-पराया’ करते हैं, संकीर्ण गुटों में बंटे रहते हैं, तेरा-मेरा के लिए जीते हैं।
ये नफ़रत और भेद कहां से आ गए?’ सच में यह संवाद हमें अंदर तक झकझोरता है। एक व्यंग्य और तंज यह भी- ‘हो सकता है कि कोई सजीला खूबसूरत लड़का अपने साथ कोई सजीली सुंदर सोन मछली को ले आए, पर प्रतियोगिता जीतने के बाद शाम को ही उसे पका कर खा डाले।’
कहने का तात्पर्य यह है कि यह तो कोई प्यार नहीं हुआ। ‘धीरे-धीरे पूरी दुनिया इसी प्रश्न में उलझ गई कि आखिर प्यार है क्या, और ये कैसे मापा जाए ?’ और यह भी देखा गया है कि ‘प्रेम का बुखार हमेशा पेट भरने के बाद ही चढ़ता है।’
प्रेम में स्वार्थ का भी कोई स्थान नहीं। मानव से मानव ही नहीं, बल्कि हर प्राणी में ‘आत्मवत्, सर्वेभूतेषु’ का मंत्र फूंके। बस,यही सुखद संदेश है इस उपन्यास का।