नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने बृहस्पतिवार को एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा कि राज्य विधानसभाओं में पारित विधेयकों को मंजूरी देने के संबंध में राज्यपाल एवं राष्ट्रपति के लिए कोई समयसीमा तय नहीं की जा सकती और न्यायपालिका भी उन्हें मान्य स्वीकृति नहीं दे सकती। प्रधान न्यायाधीश बी.आर. गवई की अगुवाई वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से कहा कि यदि राज्यपाल को अनुच्छेद 200 (विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने की राज्यपाल की शक्ति) के तहत उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना विधेयकों को रोकने की अनुमति दी जाती है तो यह संघवाद के हित के खिलाफ होगा।
राज्यपाल-राष्ट्रपति पर बिल रोक की कोई समयसीमा नहीं
यह फैसला सुनाने वाली पीठ में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी एस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए एस चंदुरकर भी शामिल थे। पीठ ने कहा, ‘‘हमें नहीं लगता कि राज्यपालों के पास राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को रोके रखने की असीमित शक्ति है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत उच्चतम न्यायालय की राय मांगे जाने पर पीठ ने ‘राष्ट्रपति के संदर्भ’ के मामले में जवाब देते हुए कहा कि राज्यपालों के पास तीन विकल्प हैं – या तो वे विधेयकों को मंजूरी दें या पुनर्विचार के लिए भेजें या उन्हें राष्ट्रपति के पास भेजें। उसने कहा कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में राज्यपालों के लिए समय-सीमा तय करना संविधान द्वारा प्रदत्त लचीलेपन के विरुद्ध है।
शीर्ष अदालत ने तमिलनाडु के मामले में राज्य के राज्यपाल द्वारा रोक कर रखे गए विधेयकों को उच्चतम न्यायालय द्वारा आठ अप्रैल को दी गई ‘‘मान्य स्वीकृति’’ को भी अनुचित बताते हुए कहा कि यह संवैधानिक प्राधिकार के कार्यों को वस्तुतः अपने हाथ में लेने के समान है। शीर्ष अदालत ने यह भी फैसला दिया कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के अधिकारों का उपयोग न्यायिक समीक्षा के दायरे में नहीं आता।




