नई दिल्ली। कांग्रेस ने सोमवार को आरोप लगाया कि राजस्थान में ‘‘डबल इंजन’’ सरकार द्वारा न सिर्फ खनन, बल्कि रियल एस्टेट विकास के दरवाजे खोले जा हैं, जिससे अरावली के “पहले से ही तबाह” पारिस्थितिकी तंत्र को और अधिक नुकसान पहुंचेगा। कांग्रेस महासचिव और पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने यह भी कहा कि यह सब भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) की सिफारिशों के खिलाफ किया जा रहा है। उन्होंने ‘एक्स’ पर एक पोस्ट में कहा, इस समय देश अरावली को लेकर उच्चतम न्यायालय के ताज़ा निर्देशों का इंतज़ार कर रहा है। यहां इस बात के और सबूत हैं कि अरावली की नई परिभाषा पहले से ही बर्बाद हो चुके इस पारिस्थितिकी तंत्र में और ज्यादा तबाही मचाएगी। उन्होंने कहा, ‘‘मुद्दा सिर्फ़ खनन का नहीं है, एफसीआईए की सिफ़ारिशों के खिलाफ, नई दिल्ली और जयपुर की डबल इंजन सरकार रियल एस्टेट डेवलपमेंट के दरवाजे भी खोल रही है।’’
अरावली पहाड़ियों की नयी परिभाषा को लेकर उठे विवाद के बीच उच्चतम न्यायालय ने इस मुद्दे पर स्वतः संज्ञान लिया है और वह सोमवार को मामले की सुनवाई करेगा। प्रधान न्यायाधीश सूर्यकांत की अध्यक्षता वाली अवकाशकालीन पीठ इस मामले की सुनवाई करेगी जिसमें न्यायमूर्ति जे.के. माहेश्वरी और न्यायामूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह शामिल हैं। उच्चतम न्यायालय ने 20 नवंबर को अरावली पहाड़ियों और पर्वतमालाओं की एक समान परिभाषा को स्वीकार करते हुए, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात में फैले अरावली क्षेत्रों में विशेषज्ञों की रिपोर्ट आने तक नए खनन पट्टों के आवंटन पर रोक लगा दी थी।

राजस्थान में 12,081 पहाड़ियां
आंकड़े डराने वाले हैं, क्योंकि राजस्थान की 12,081 पहाड़ियों में सिर्फ 1,048 हैं जो 100 मीटर से ऊंची हैं। यानी बाकी 11,000 पहाड़ है वे अरावली या उसकी श्रृंखला कहलाएगी ही नहीं। कानूनी संरक्षण से इन्हें पूरी तरह बाहर कर दिया गया है. जो जहां जब चाहे और जिस तरह चाहे यहां खनन करके इनकी छाती को छलनी कर सकता है। यानी खनन के लिए खुली छूट का रास्ता खुल जाएगा और ये पहाड़ी रेत-गिट्टी का अंबार बनने को तैयार हो जाएगी, लेकिन अब जरा इसके असर को भी समझ लीजिए। कागजों में तो अरावली बची रहेगी, लेकिन धरातल पर कटे पहाड़, सूखी नदियां और धूल से भरी हवा रह जायेगी. यही कारण है कि राजनीतिक गलियारों में भीइसे लेकर हलचल है। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने डीपी बदलकर मुहिम में कूद पड़े. निर्दलीय विधायक रविंद्र सिंह भाटी ने सीधे प्रधानमंत्री को पत्र लिख दिया है, जगह-जगह विरोध हो रहा है, लेकिन साथ ही एक सवाल भी उठ रहा है कि ये आवाज पर्यावरण की चिंता है, या चुनावी मौसम का नया मुद्दा? ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि जहां खनन माफिया, रियल एस्टेट लॉबी और सिस्टम का संगम हो वहां पर्यावरण सिर्फ फाइलों में बचता है, जमीन पर नहीं।
क्या है विवाद की असली जड़?
राजस्थान की 12 हजार से ज्यादा पहाड़ियों में से सिर्फ एक हजार के करीब ही 100 मीटर से अधिक ऊंची हैं. यानी नई परिभाषा लागू होने पर 90 फीसदी अरावली कानूनी सुरक्षा से बाहर हो जाएगी। विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि इससे अवैध खनन, रियल एस्टेट और जंगल कटाई को खुली छूट मिल जाएगी और इसका असर सिर्फ पहाड़ों पर नहीं पड़ेगा बल्कि बारिश, भूजल और पूरे इकोसिस्टम पर होगा।
क्यों जरूरी है अरावली?
क्या अरावली सिर्फ पहाड़ है? नहीं, यह एक एक इकोसिस्टम है जो रेगिस्तान को रोकता है, बारिश का पानी रोककर जमीन में उतारता है. तापमान नियंत्रित करता है, धूल भरी आंधी से बचाता है। अगर अरावली नहीं होती तो पूरा राजस्थान आज मरुस्थल होता, और यह कोई जुमला नहीं वैज्ञानिक तथ्य है। यानी अरावली कटेगी तो अकाल बढ़ेगा, जल संकट भी, रेगिस्तान आगे बढ़ेगा और इसका असर दिल्ली तक होगा।
अरावली में बसी राजस्थान की संस्कृति
जबकि इसी अरावली में ऐतिहासिक किले, कुंभलगढ़, सरिस्का, झालाना, नाहरगढ़ और जवाई जैसे बड़े फारेस्ट रिसर्व के जंगल, शहर,क्रिटिकल मिनरल्स और चंबल, बनास, सहाबी, काटली जैसी सैकड़ों छोटी-बड़ी नदियां भी है, जो कि पूर्वी राजस्थान में खेती और पशुपालन की आधारशीला भी है। एक रिपोर्ट के मुताबिक अरावली की संरचनाएं सालाना 20 लाख लीटर प्रति हेक्टयर भूमिगत जल रिचार्ज करती है। अरब सागर से बंगाल की खाड़ी से आने वाला मानसून अरावली पर्वतों की घुमावदार संरचना और बनावट के चलते इनसे टकराकर पूरे प्रदेश में बारिश करता है।




