देश के पांच राज्यों में चुनावी माहौल बना हुआ है। नेताओं की चुनावी रैलियां भी जारी हैं। इन सबके बीच पक्ष-विपक्ष के आरोप-प्रत्यारोप सुनाई देने लग गए हैं। हालांकि यह चुनाव के दौरान ही नहीं, इसके पहले भी बयानों के बाण चलते रहे हैं। कोई किसी को झूठा बता रहा है तो कोई किसी को चोर। कोई खुद भगवान का भक्त बता रहा है तो कोई भगवान की शरण में ही सर्वस्व समर्पित करता प्रतीत हो रहा है।
नेताओं के आरोप-प्रत्यारोपों ने तो सारी सीमाएं लांघ ही दी हैं। क्योंकि मुद्दे या तो हैं नहीं या फिर खड़े करने की नेताओं में आदत ही नहीं रही। अब माइक सामने हैं तो कुछ बोलना तो पड़ेगा ही और इसलिए बेसिर-पैर की बातें करना ही नेताओं का शगल बन गया है। वास्तव में तो स्थिति यह है कि जनता खुद नहीं जान पा रही है कि आखिर झूठा है कौन? क्योंकि माहौल में झूठ इस तरह फैल गया है कि सच्चाई की किरण कहीं नजर नहीं आ रही।
खैर यह तो बात नेताओं की चुनावी लड़ाई की, लेकिन मंगलवार को बिहार विधानसभा में जाति आरक्षण सर्वेक्षण पेश करते वक्त तो सदन में ऐसा कुछ बोला गया कि जिसे सुनकर कोई भी सभ्य व्यक्ति कानों में रूई डालने को मजबूर हो जाए। नीतीश जनसंख्या नियंत्रण की बात करते हुए इतने अनियंत्रित हो गए कि सदन ने वो कुछ सुना, जो असंसदीय ही कहा जाना चाहिए।
एक कद्दावर नेता और सरकार के सबसे बड़े पदासीन व्यक्ति ने सदन को शर्मसार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कोई नया-नवेला नेता ऐसा बोलता तो सुप्रीम कोर्ट स्वत: प्रसंज्ञान लेकर उसकी सदस्यता को छीन लेता, लेकिन सरकार के मुखिया की बात पर कौन प्रसंज्ञान लेगा? क्या इतने बड़े आदमी के लिए भी कोई लक्ष्मण रेखा नहीं होनी चाहिए? क्या सदन इन नेताओं का निजी कक्ष हो गया है कि वे चाहें जो कुछ बोलें और बेशर्म होकर हंसते भी रहें। अब नीतीश माफी मांगते फिर रहे हैं, पर सोचने वाली बात है कि अब माफी देगा कौन?
क्या विधायिका या फिर देश का सबसे बड़ा कोर्ट, क्या इसके लिए कोई कार्रवाई होनी चाहिए या फिर सदनों में अब सबको सब कुछ बोलने की छूट मिलने वाली है? सोचने वाली बात यह भी है कि आखिर इन नेताओं पर कोई लगाम नहीं लगाएगा? सवाल कई तरह के हैं, लेकिन जवाब के लिए किसके पास जाएं?
नेता तो सिर्फ एक दूसरे पर कीचड़ उछाल कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेंगे। माफी मांगने पर बिहार की नेत्री राबड़ी देवी ने कहा कि जुबान फिसल जाती है। ऐसा हो जाता है। बोलिए अब क्या किया जाए? महिलाएं ही पक्ष में आ गई हैं। ऐसे में अब कैसे किसे से कोई उम्मीद की जा सकती है।
भाजपा की निवेदिता सिंह ने जरूर नाराजगी जताई कि आखिर इतनी निजी बातों को सदन में नीतीश कैसे कह गए। क्या वे सब कुछ भूलकर घर में बात कर रहे थे? हैरानी की बात तो यह है कि ऐसी बातें घर में भी नहीं की जा सकती। फिर वे भाषायी स्तर को कैसे नीचे गिरा गए?