संस्कृति से दूर होती सभ्यता ही तो है पर्यावरण प्रदूषण की मूल जड़

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    फिलहाल दिल्ली और एनसीआर के आस-पास लोगों को सांस लेने में दिक्कतें महसूस हो रही हैं। सुबह से ही कोहरे की चादर दिल्ली के आसमान में छाने लगती हैं। हवा की गुणवत्ता लगातार बद से बदतर होती जा रही है। एक्यूआई 334 तक पहुंच चुका है। गले में खराश, आंखों में जलन, सांस लेने में तकलीफें और कई अन्य बीमारियाें ने दिल्ली वासियों का जीना मुहाल कर रखा है। देश का दिल कहे जाने वाले दिल्ली में देश के कोने से कोने से रोजी-रोटी की तलाश में लोग आ बसे। लाचार, गरीब लोगों को सूझ नहीं रहा कि बढ़ती मंहगाई और निरंतर कम होती जा रही आमदनी में अपना पेट काटकर इन बीमारियों से कैसे सामना करें? केंद्र और दिल्ली सरकार के दरवाजे पर गुहार लगाने के अलावा दूसरा उपाय क्या है? कभी यमुना दिल्ली के लाल किले की दहलीज तक दस्तक देती थी। आज अपनी दुर्दशा पर रो रही है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि नदियों के तट पर ही भारतीय सभ्यता का सृजन और विस्तार हुआ है। हमारे शरीर के धमनियों में बहने वाले खून की तरह नदियां सृष्टि काल से हमारे जीवन की तारणहार, खैवनहार और जीवनधारा रही हैं। औद्योगिक विकास की मौजूदा प्रणाली हमें इस जीवन धारा से लगातार वंचित और बेदखल कर रही है। आज हमारे रहन-सहन का ढंग बदल गया है। हम दोष जलवायु परिवर्तन को दे रहे हैं, लेकिन अपने आपको बदलने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं हैं। आलम यह है कि हम सोशल मीडिया के माध्यम से दुनिया की अन्य सभी खबरों से हर वक्त बाख़बर हैं, पर अपने पास की नदी की रुलाई हम कहां सुनते हैं? वैदिक परंपरा से लेकर सुकरात पूर्व ग्रीक दर्शन में पांच महाभूतों से निर्मित इस विश्व के संरक्षण-संवर्धन के प्रति हम सदैव सचेत रहे हैं। पृथ्वी, आकाश, जल , वायु और अग्नि के सरंक्षक उपायों तथा उनके कार्य पद्धतियों का विस्तार से अध्ययन और जीवन में उनके महत्व को भी हम गहराई से चिन्तन-मनन करते रहे हैं। हमारे धार्मिक कार्यों में भी जल, पेड़-पौधों, नदियों-सरोवरों की रक्षा करने, उन्हें किसी भी तरह से क्षति नहीं पहुंचाने की अवधारणा को पूजा-आराधना, और पाप-पुण्य की भावना से जोड़ने के पीछे भी दरअसल उनके संरक्षण का उपाय ही है। फिर क्या वजह है कि हजारों साल से, हर बारह साल के बाद लगने वाले महाकुम्भ के बाद पर्यावरण प्रदूषण को लेकर उतनी हाहाकार कभी नहीं मचती, जितनी हर साल, जाड़े का मौसम शुरू होते ही खासकर छठ और दीपावली जैसे पवित्र हिंदू त्योहारों के बाद दिल्ली में वायु गुणवत्ता और यमुना में जल की कमी और लगातार प्रदूषित होते जा रहें जल को लेकर शोर शुरू हो जाता है। यह हमारे आधुनिक जीवन शैली में आ रहे बदलाव का नतीजा तो है ही, साथ-ही-साथ प्रकृति की साझी विरासत का बेरहमी से शोषण का परिणाम है। हम अपनी सभ्यता को बचाये रखते हुए और जिन्दा रहना चाहते तथा भावी पीढ़ी कोकुछ बची-खुची विरासत सौंपना चाहते हैं, तो संस्कृति का अनुसरण करना होगा।