Wednesday, August 6, 2025
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Cloudburst incidents in Uttarakhand: केदारनाथ से धराली तक, उत्तराखंड की अनसुनी चेतावनियां और बढ़ती आपदाएं

उत्तरकाशी के धराली में बादल फटने और बाढ़ से केदारनाथ आपदा जैसी तबाही की यादें ताजा हो गईं। विशेषज्ञों ने चेताया कि उत्तराखंड की संवेदनशील भौगोलिक स्थिति, जलवायु परिवर्तन और अनियंत्रित विकास आपदाओं को और बढ़ा रहे हैं। भारी वर्षा, भूस्खलन, ग्लेशियर पिघलने और हिमनद झीलें गंभीर खतरे हैं। नीति और चेतावनियों की अनदेखी ने राज्य को बार-बार त्रासदी के कगार पर ला खड़ा किया है।

Cloudburst incidents in Uttarakhand: उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के धराली में बादल फटने के बाद खीर गंगा नदी में अचानक आई बाढ़ से मची तबाही के मंजर ने 2013 की केदारनाथ आपदा की पीड़िता गीता की दर्दनाक यादें फिर से ताजा कर दीं। केदारनाथ में आई जल प्रलय 2004 की सुनामी के बाद भारत की सबसे भीषण त्रासदी थी। इसमें गीता ने अपने परिवार के चार सदस्यों को खो दिया था। दिल्ली में एक घर में घरेलू सहायिका के रूप में काम करने वाली गीता ने मंगलवार को टेलीविजन पर धराली में आई आपदा के दृश्य देखने के बाद कहा, केदारनाथ में भी ऐसा ही हुआ था।

केदारनाथ में 2013 में आई थी आपदा

केदारनाथ में 2013 में आई आपदा मानसूनी बारिश में तीव्र वृद्धि और पश्चिमी विक्षोभ के संयुक्त प्रभाव का नतीजा थी, जिसके कारण 24 घंटे की अवधि में 300 मिलीमीटर से अधिक वर्षा हुई थी। अत्यधिक बारिश और तेजी से पिघलती बर्फ के कारण चोराबारी झील का मोराइन बांध टूट गया था और क्षेत्र में भीषण बाढ़ आने से लगभग 5,700 लोगों की मौत हो गई थी। केदारनाथ आपदा से प्रभावित गीता (45) और उसका परिवार नये सिरे से जिदंगी की शुरुआत करने के लिए दिल्ली आ गया। हालांकि, हिमालयी राज्य में जब भी कोई आपदा आती है, तो गीता के जहन में उस दर्दनाक मंजर की यादें फिर से ताजा हो जाती हैं।

पिछले 12 वर्षों में आई आपदाओं ने हिमालयी क्षेत्र की नाजुक प्रवृत्ति को रेखांकित किया है। 18 अगस्त 2019 को उत्तरकाशी के आराकोट क्षेत्र के टिकोची और मकुडी गांवों में बादल फटने के बाद अचानक आई बाढ़ और भूस्खलन की घटनाओं में कम से कम 19 लोगों की मौत हो गई और 38 गांवों के निवासी प्रभावित हुए। फरवरी 2021 में एक ‘हैंगिंग ग्लेशियर’ के टूटने के कारण चमोली जिले में ऋषिगंगा और धौलीगंगा नदियों में अचानक बाढ़ आ गई, जिससे दो प्रमुख जलविद्युत परियोजनाओं-ऋषिगंगा और तपोवन विष्णुगाड-को भारी नुकसान पहुंचा। प्रभावित क्षेत्रों से 80 शव बरामद किए गए, जबकि 204 लोग लापता हो गए।

केदारनाथ से धराली तक लगातार बढ़ रही बादल फटने की घटनाएं

अगस्त 2022 में मालदेवता-सोंग-बाल्डी नदी प्रणाली में बादल फटने के कारण अचानक आई बाढ़ ने देहरादून के पास मालदेवता शहर के बड़े हिस्से को बहा दिया। इस आपदा में 15 किलोमीटर का क्षेत्र प्रभावित हुआ। विशेषज्ञों का कहना है कि धराली में आई आपदा बहुत हद तक 2021 की चमोली त्रासदी से मेल खाती है। एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर वाईपी सुंदरियाल ने कहा, यह (धराली में आई आपदा) चमोली के समान है और बारिश सिर्फ एक कारक है। हमें अधिक जानकारी जुटाने के लिए उच्च-रेजोल्यूशन वाले उपग्रह डेटा या जमीनी अध्ययन की जरूरत है।

चमोली त्रासदी में 20 से 22 किलोमीटर क्षेत्र प्रभावित हुआ था, लेकिन अलकनंदा के निचले इलाकों पर कोई असर नहीं पड़ा था। ‘जर्नल ऑफ जियोलॉजिकल सोसायटी ऑफ इंडिया’ में पिछले महीने प्रकाशित एक अध्ययन उत्तराखंड में 2010 के बाद अत्यधिक वर्षा और सतह पर जल प्रवाह की घटनाओं में भारी वृद्धि की पुष्टि करता है। प्रोफेसर सुंदरियाल के नेतृत्व में हुए इस अध्ययन से पता चलता है कि उत्तराखंड में 1998 से 2009 के बीच जहां तापमान में वृद्धि और बारिश में कमी दर्ज की गई, वहीं 2010 के बाद यह स्थिति उलट गई और राज्य के मध्य एवं पश्चिमी हिस्से अत्यधिक बारिश की घटनाओं के गवाह बने।

प्रोफेसर सुंदरियाल ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, 1970 से 2021 तक के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि उत्तराखंड में 2010 के बाद अत्यधिक वर्षा की घटनाओं में स्पष्ट वृद्धि हुई है। राज्य का भूविज्ञान इसे आपदाओं के प्रति अधिक संवेदनशील बनाता है। खड़ी ढलानें, कटाव के लिहाज से बेहद संवेदनशील नाजुक संरचनाएं और ‘मेन सेंट्रल थ्रस्ट’ जैसे ‘टेक्टोनिक फॉल्ट’ इलाके को अस्थिर बनाते हैं। हिमालय का भौगोलिक प्रभाव नम हवा को ऊपर की ओर खींचता है, जिससे स्थानीय स्तर पर तीव्र बारिश होती है, जबकि अस्थिर ढलानें भूस्खलन और आकस्मिक बाढ़) का जोखिम बढ़ाती हैं।

नवंबर 2023 में ‘नेचुरल हजार्ड्स जर्नल’ में प्रकाशित एक अध्ययन में उत्तराखंड में 2020 से 2023 के बीच आई आपदाओं से जुड़े डेटा का विश्लेषण किया गया, जिससे राज्य में मानसून के महीनों के दौरान 183 घटनाएं घटने की बात सामने आई। इनमें से 34.4 फीसदी घटनाएं भूस्खलन, 26.5 फीसदी आकस्मिक बाढ़ और 14 फीसदी बादल फटने की थीं। मौसमी आपदाओं पर विज्ञान और पर्यावरण केंद्र के एटलस से पता चलता है कि जनवरी 2022 से मार्च 2025 के बीच 13 हिमालयी राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों में 822 दिन चरम मौसमी घटनाएं दर्ज की गईं, जिनमें 2,863 लोगों की मौत हुई। विशेषज्ञों का कहना है कि ये प्राकृतिक कारक मानवीय गतिविधियों के कारण और तीव्र हो गए हैं। अस्थिर ढलानों या नदी तटों पर बेलगाम सड़क निर्माण, वनों की कटाई और पर्यटन बुनियादी ढांचे एवं बस्तियों के विकास से आपदाओं का जोखिम कई गुना बढ़ गया है।

पर्यावरण कार्यकर्ता अनूप नौटियाल ने कहा कि केदारनाथ, चमोली, जोशीमठ, सिरोबगड, क्वारब और यमुनोत्री में लगातार हुई त्रासदियों के बावजूद उत्तराखंड के विकास पथ में कोई बदलाव नहीं आया है। उन्होंने दावा किया, त्रुटिपूर्ण नीतियों और परियोजनाओं के कारण पारिस्थितिक क्षरण और बेतरतीब विकास में तेजी आ रही है। जलवायु कार्यकर्ता हरजीत सिंह ने उत्तरकाशी त्रासदी को ग्लोबल वार्मिंग से प्रेरित चरम मानसूनी घटनाओं और विकास के नाम पर अवैज्ञानिक, अस्थिर निर्माण का एक घातक मिश्रण बताया। खतरा अत्यधिक बारिश और भूस्खलन तक ही सीमित नहीं है। विशेषज्ञों के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन से क्षेत्र के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जिससे उफनाती हिमनद झीलों के रूप में नये खतरे पैदा हो रहे हैं।

उत्तराखंड में 1,260 से अधिक हिमनद झीलें हैं, जिनमें से 13 को राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) ने उच्च जोखिम वाली हिमनद झील और पांच को बेहद खतरनाक हिमनद झील के रूप में वर्गीकृत किया है। ये झीलें निचले इलाकों के लिए बड़े जोखिम पैदा करती हैं, खासकर तब जब तापमान बढ़ने से ग्लेशियर तेजी से पिघलने लगते हैं। वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान (डब्ल्यूएचजी) ने ‘हैंगिंग ग्लेशियर’ और हिमनद झीलों से उत्पन्न खतरों के बारे में बार-बार आगाह किया है। चमोली आपदा के बाद, डब्ल्यूएचजी के वैज्ञानिकों ने ग्लेशियर को अस्थिर करने में ‘फ्रीज-थॉ साइकल’ (बर्फ के जमने और पिघलने का चक्र) की भूमिका पर प्रकाश डाला है।

हिमनद झील में अचानक आने वाली बाढ़ पर एनडीएमए के साल 2020 के दिशा-निर्देशों में उच्च जोखिम वाली झीलों का मानचित्रण करने, भूमि-उपयोग प्रतिबंधों को लागू करने और संभावित उल्लंघनों का पता लगाने के लिए दूरस्थ निगरानी प्रणाली का इस्तेमाल करने का आह्वान किया गया है। इसी तरह, ‘दक्षिण एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपुल’ के 2013 के विश्लेषण में कहा गया है कि बेलगाम पनबिजली परियोजनाओं और पहाड़ों की कटाई ने नाजुक इलाके में जोखिम बढ़ा दिए हैं, लेकिन इसकी सिफारिशों को नजरअंदाज कर दिया गया। कई विशेषज्ञ रिपोर्टों के बावजूद, नीति निर्माण और प्रवर्तन उपाय खतरे के पैमाने जितने नहीं रहे हैं। आज जब उत्तराखंड एक और आपदा से जूझ रहा है, तो सवाल यह उठता है कि क्या राज्य में किसी और त्रासदी के घटने से पहले वैज्ञानिकों की ओर से दी गई चेतावनियों और सुझावों पर ध्यान दिया जाएगा।

Mukesh Kumar
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